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सोमवार, 23 जुलाई 2012

नया दिन

क्या
इन्तजार है तुम्हें
उस दिन का
जब ..
लहू उबलकर
आ जायेगा
शिराओं से बाहर
जब ...
समुद्र में
आंसुओं के
आने लगेंगे
सुनामी
जब ...
भूख की आग
मचा देगी
हाहाकार
जब ...
नंगे बदन
चमकने लगेंगे
तलवारों की तरह
जब ...
नारों में
उठने लगेंगे तूफान
और डोलेगी धरती
इतनी
की एक हो जायेगा
सबका धरातल
जब ...
तुम्हारा बदलना
उतना ही
जरुरी होगा
जितना कि
सांस लेना
जब ...
सांस लेने के लिए
बदलना
होगा तुम्हें
अपनी पूरी
दुनिया के साथ ...
सच कहूँ
तो मुझे भी
इंतजार है
उसी
नए दिन का ...

सोमवार, 2 जुलाई 2012

बहुत दिनों के बाद एक कविता प्रकाशित कर रहा हूँ ,आपकी प्रतिक्रिया कि अपेक्षा है

.
बहुत नया पाया तुमको
जब छंटा कुहासा
और झाँका मैंने
आँखों में तुम्हारी
कुछ दिखा चमकता सा
जैसे मोती , जैसे  हीरा
या बूँद ओंस की
क्या नाम "प्रेम" दे दूँ उसको ?
कई वर्षों के बाद
आज सुना मैंने
तुम्हारी
आवाज़ का
स्पंदन ह्रदय भर
मैं
जीवित हुआ
मानो फिर से

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

एक लम्बे अरसे के बाद इस ब्लॉग को पुनर्जीवित करने की कोशिश करते हुए एक कविता प्रकाशित कर रहा हूँ ,कृपया अपनी प्रतिक्रियाएं अवश्य दें जिससे निरंतर लिखते रहने का उत्साह बना रहे ,कविता कुछ इस तरह है ....
कितने आकाश हैं
इस
आकाश के नीचे
और
कितने ही धरातल
इस
जमीन के ऊपर
जिनके मध्य
तैर रही हैं
साँसे
बदल रहे हैं रंग
ढल रहे दिन
जम रही रातें
और
उग रहे हैं कई सूरज ......

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

क्षणिका

बस चंद

साँसों की मोहलत

मिली है मुझे और...

और मैं हूँ कि

हर सांस में

लिए जा रहा हूँ

सिगरेट का

एक नया कश....

बुधवार, 29 सितंबर 2010

हमारे देश में जात पात और धर्म के नाम पर पैदा किये जाने वाले उन्माद पर एक कविता

मैं ना जानूं जात पात की परिभाषा
मैं ना मानूं
धर्म के ये आडम्बर
दिल मेरा मेरी इबादतगाह है
मंदिर और मस्जिद मेरे लिए पत्थर


जीवन एक दरिया है इसको बहने दो
बांधो ना इसको किसी भी बंधन में
तभी उगेगा सूर्य छंटेगा अंधियारा
ज्योति प्रेम की जब जलेगी हर मन में


खून के प्यासे हैं जो उनको रोको अब
कुछ नहीं हुआ होगा कत्लोगारत से
ज्ञान और विज्ञान से चमकेगा भारत
कुछ नहीं मिला मिलेगा धर्म सियासत से

बुधवार, 11 अगस्त 2010

बर्क जब भी मेरे आशियाँ .........

बर्क जब भी मेरे आशियाँ पे गिरी है
मुझे रोशनी से उसकी नई राह मिली है

यहाँ
से हम तुम नहीं जा सकते एक साथ
मज़हब की ये बड़ी ही तंग गली है

इस
ओर खड़े इस भिखारी की आह
उस ओर खड़े उस मंदिर से बड़ी है

नई हवा में ना घोलो ये बंटने की रवायत
हर इंसान इंसानियत की एक कड़ी है

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

ग़ज़ल के चंद शेर

तमाम दर्द पैवस्त करके सीने में
है लुत्फ़ कुछ अलग इस तरह से जीने में

मुझे तलाश नहीं है मसर्रतों की अब
मज़ा सा आने लगा आंसुओं को पीने में

सिसक रहे हैं जो बच्चे उन्हें हंसा दो जरा
क्या ढूंढते हो भला काशी में मदीने
में