बस चंद
साँसों की मोहलत
मिली है मुझे और...
और मैं हूँ कि
हर सांस में
लिए जा रहा हूँ
सिगरेट का
एक नया कश....
गुरुवार, 30 दिसंबर 2010
बुधवार, 29 सितंबर 2010
हमारे देश में जात पात और धर्म के नाम पर पैदा किये जाने वाले उन्माद पर एक कविता
मैं ना जानूं जात पात की परिभाषा
मैं ना मानूं धर्म के ये आडम्बर
दिल मेरा मेरी इबादतगाह है
मंदिर और मस्जिद मेरे लिए पत्थर
जीवन एक दरिया है इसको बहने दो
बांधो ना इसको किसी भी बंधन में
तभी उगेगा सूर्य छंटेगा अंधियारा
ज्योति प्रेम की जब जलेगी हर मन में
खून के प्यासे हैं जो उनको रोको अब
कुछ नहीं हुआ न होगा कत्लोगारत से
ज्ञान और विज्ञान से चमकेगा भारत
कुछ नहीं मिला न मिलेगा धर्म सियासत से
मैं ना मानूं धर्म के ये आडम्बर
दिल मेरा मेरी इबादतगाह है
मंदिर और मस्जिद मेरे लिए पत्थर
जीवन एक दरिया है इसको बहने दो
बांधो ना इसको किसी भी बंधन में
तभी उगेगा सूर्य छंटेगा अंधियारा
ज्योति प्रेम की जब जलेगी हर मन में
खून के प्यासे हैं जो उनको रोको अब
कुछ नहीं हुआ न होगा कत्लोगारत से
ज्ञान और विज्ञान से चमकेगा भारत
कुछ नहीं मिला न मिलेगा धर्म सियासत से
बुधवार, 11 अगस्त 2010
बर्क जब भी मेरे आशियाँ .........
बर्क जब भी मेरे आशियाँ पे गिरी है
मुझे रोशनी से उसकी नई राह मिली है
यहाँ से हम तुम नहीं जा सकते एक साथ
मज़हब की ये बड़ी ही तंग गली है
इस ओर खड़े इस भिखारी की आह
उस ओर खड़े उस मंदिर से बड़ी है
नई हवा में ना घोलो ये बंटने की रवायत
हर इंसान इंसानियत की एक कड़ी है
मुझे रोशनी से उसकी नई राह मिली है
यहाँ से हम तुम नहीं जा सकते एक साथ
मज़हब की ये बड़ी ही तंग गली है
इस ओर खड़े इस भिखारी की आह
उस ओर खड़े उस मंदिर से बड़ी है
नई हवा में ना घोलो ये बंटने की रवायत
हर इंसान इंसानियत की एक कड़ी है
मंगलवार, 3 अगस्त 2010
ग़ज़ल के चंद शेर
तमाम दर्द पैवस्त करके सीने में
है लुत्फ़ कुछ अलग इस तरह से जीने में
मुझे तलाश नहीं है मसर्रतों की अब
मज़ा सा आने लगा आंसुओं को पीने में
सिसक रहे हैं जो बच्चे उन्हें हंसा दो जरा
क्या ढूंढते हो भला काशी में मदीने में
है लुत्फ़ कुछ अलग इस तरह से जीने में
मुझे तलाश नहीं है मसर्रतों की अब
मज़ा सा आने लगा आंसुओं को पीने में
सिसक रहे हैं जो बच्चे उन्हें हंसा दो जरा
क्या ढूंढते हो भला काशी में मदीने में
रविवार, 1 अगस्त 2010
सफ़र
कल तक जो कुछ
'अच्छा' बचा था
मेरे पास
सिर्फ उसे
और सिर्फ उसे ही
साथ लेकर
तय करना
चाहता हूँ
मैं
'आज' का सफ़र
'अच्छा' बचा था
मेरे पास
सिर्फ उसे
और सिर्फ उसे ही
साथ लेकर
तय करना
चाहता हूँ
मैं
'आज' का सफ़र
रविवार, 18 जुलाई 2010
यूँ बनती है कविता ....
इक तन्हाई को जीना पड़ता है तब बनती है कविता
इक दर्द को पीना पड़ता है तब बनती है कविता
शब्द लहराने लगते हैं जब भावों के तूफानों में
उनको पकड़ना पड़ता है तब बनती है कविता
इक दर्द को पीना पड़ता है तब बनती है कविता
शब्द लहराने लगते हैं जब भावों के तूफानों में
उनको पकड़ना पड़ता है तब बनती है कविता
शनिवार, 17 जुलाई 2010
अपना कोई रूप ना रहा.........
अपना कोई रूप ना रहा
इतने सांचों में मैं ढला
गुम था इक भीड़ में मगर
वो मुझे तनहा सा लगा
खुद को महसूस कर लूं मैं
आ मेरे बाजुओं में आ
आरजू ना साहिलों की कर
साथ लहरों का तू निभा
हौसला था पंखों का फ़क़त
पंछी जब शाख से उड़ा
इतने सांचों में मैं ढला
गुम था इक भीड़ में मगर
वो मुझे तनहा सा लगा
खुद को महसूस कर लूं मैं
आ मेरे बाजुओं में आ
आरजू ना साहिलों की कर
साथ लहरों का तू निभा
हौसला था पंखों का फ़क़त
पंछी जब शाख से उड़ा
सोमवार, 12 जुलाई 2010
ये जिंदगी है पहाड़ की ...........
आज कोई कविता या ग़ज़ल पोस्ट नहीं करूँगा , आज पेश है पहाड़ की समस्याओं भरी जिंदगी से रूबरू कराता एक वाकया ,जिसमें अगर पहाड़ का दर्द आपको दिखाई दे ,तो कृपया अपनी प्रतिक्रिया/टिप्पणी के माध्यम से मुझे अवश्य अवगत कराएँ , मैं मानूंगा कि मेरी यह कोशिश सार्थक हुई ,
हुआ यूँ कि मेरी पत्नी जिसे लगभग एक महीने का गर्भ था ,पिछले कुछ दिनों से निरंतर कमर दर्द की शिकायत कर रही थी ,मैंने कारण पूछा तो पता चला कि पानी से भरा बर्तन उठाने के दौरान लगे झटके के बाद से कमर दर्द आरम्भ हुआ है ,आपको बताता चलूँ कि हमारा गाँव और यह संपूर्ण क्षेत्र जो कि उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जनपद में स्थित है ,आजकल पानी की भयंकर किल्लत से जूझ रहा है ,लोग कई कई किलोमीटर दूर से पानी लाने को मजबूर हैं ,यह जिम्मेदारी विशेषकर औरतों की होती है ,घर के सभी कामों व् पालतू जानवरों की देख रेख के साथ साथ यह अतिरिक्त जिम्मेदारी उन पर बहुत भारी पड़ती है ,विगत वर्ष तो कभी कभार टैंकरों के माध्यम से पानी की व्यवस्था की जाती रही किन्तु इस वर्ष ग्राम प्रधान धन की कमी का रोना रोते हुए पानी की व्यवस्था कर पाने में असमर्थता जता रहा है , ऐसा लगता है कि अगर यही स्थिति रही तो गाँवों के बाशिंदे यहाँ से पलायन करने को मजबूर हो जायेंगे ,अक्सर सुनता हूँ कि पानी की पाइप लाइन बिछाने के लिए लाखों रुपये की योजना स्वीकृत हुई है ,किन्तु नतीजा सिफ़र ही रहता है , यदि कुछ जगह पाइप बिछे भी हैं तो उचित देख रेख के अभाव में लोगों तक जलापूर्ति नहीं हो पाती ,प्यासे हलक लिए लोग कब तक यहाँ रह सकेंगे ,यह विचार मुझे अक्सर झकझोर देता है ,क्या राजधानी देहरादून में बैठे मंत्रियों,नेताओं और नौकरशाहों तक इन निरीह ग्रामीणों की यह प्यास कभी पहुँच पाएगी?
खैर , पत्नी का कमर दर्द जब निरंतर बना रहा और साथ ही हल्का हल्का खून आने की शिकायत हुई तो मुझे एक योग्य चिकित्सक की आवश्यकता महसूस हुई किन्तु दूर दूर तक कोई योग्य चिकित्सक उपलब्ध न होने से मेरी चिंता बढ गई ,और मैंने डाकटरी परामर्श हेतु देहरादून आने का निश्चय किया ,किन्तु सुबह ९ बजे के पश्चात देहरादून के लिए कोई गाडी उपलब्ध ना होने के कारण हमें पूरा दिन और पूरी रात बेचैनी में काटनी पड़ी , अगली सुबह मैंने गाडी की एक सीट बुक करने के लिए ड्राईवर को फ़ोन करना चाहा तो नेटवर्क में खराबी की वजह से फ़ोन भी नहीं मिल पाया , फिर हमने थक हारकर सड़क पर ही खड़े रहने का निर्णय लिया ,इस उम्मीद पर कि शायद कोई ना कोई गाडी हमें मिल ही जायेगी ,लम्बे इन्तजार के बाद एक गाडी (टाटा सुमो ) हमारे सामने आ खड़ी हुई ,मैंने पत्नी की हालत को देखते हुए ड्राईवर से एक सीट बुक करने का आग्रह किया ,पत्नी को सीट पर लिटाकर स्वयं अपने चार वर्षीय बालक को गोद में ले उसी सीट के कोने पर दुबक कर बैठ गया ,शुरूआती १० किलोमीटर के सफ़र के दौरान दो और सवारियां गाडी में बैठी जिनमें एक बीमार बुढिया थी जो शायद इलाज के लिए देहरादून जा रही थी और दूसरा एक हट्टा कट्ठा किन्तु बुरी तरह चोटिल नौजवान था जिसके बदन के लगभग हर हिस्से पर चोट के निशाँ थे जिनमें से हल्का हल्का खून भी रिस रहा था ,पूछने पर पता चला कि एक बड़े बांज के पेड़ से लकडियाँ काटते समय पैर फिसलने से उसकी यह हालत हुई ,यह सब देखकर मन एक अजीब पीड़ा से भर गया ,धीरे धीरे कुछ दूरी और तय करते करते गाडी सवारियों से ठसाठस भर गई ,जब गाडी के भीतर जगह कम पड़ने लगी तो कुछ लोग गाडी की छत पर और एक सज्जन तो ड्राईवर के साथ ही उसी की सीट पर बैठ गए, परिणामस्वरूप गाडी के संचालन हेतु पर्याप्त जगह ना होने के कारण ड्राईवर बमुश्किल किसी तरह गाडी आगे बढाने लगा ,एक तो तंग पहाड़ी सडकों के सर्पीले मोड़ ,गहरी गहरी खाइयाँ और ऊपर से ड्राईवर के इस अंदाज़ से गाडी चलाने की वजह से मुझे किसी अनहोनी के होने का डर सताने लगा , आँखों के आगे अखबारों की वो सुर्खियाँ चमकने लगी जिनमें अक्सर पहाड़ी सड़कों पर गाडी के गिरने और लोगों के हताहत होने का जिक्र होता है,बार बार मोड़ आने और गाडी के लहराते हुए चलने से पत्नी और पुत्र दोनों को मितली की शिकायत होने लगी ,दोनों इधर उधर की खिडकियों से उल्टी करने लगे ,उनको सँभालते सँभालते मेरी भी तबियत कुछ बिगड़ गई ,मुझे डर हुआ की कहीं मैं भी ना मुंह खोल दूं ,उधर पीछे की सीट में भी एक महिला उल्टी कर कर के बेहाल हो चुकी थी,
खैर लगभग ४ घंटे के सफ़र के पश्चात गाडी देहरादून पंहुची ,मैंने ड्राईवर को सधन्यवाद किराया दिया और यथाशीघ्र एक सुप्रसिद्ध महिला डॉक्टर से काफी मिन्नत कर के उन्हें मामले की गंभीरता को समझाकर मिलने का समय माँगा ,किन्तु तब तक शायद समय बीत चुका था ultrasound करने पर पता चला कि गर्भस्राव हो गया है ,एक सपने पर तुषारापात हुआ , मन दुःख और ग्लानि में डूब गया,मैं और मेरी पत्नी इस घटना के संभावित कारण ढूँढने लगे ,कभी लगा कि शायद पानी का बर्तन उठाने से ऐसा हुआ तो कभी सही वक़्त पर चिकित्सा सुविधा का ना मिल पाना और कभी पहाड़ी सफ़र के दौरान गाडी में लगे झटकों और उल्टियों में हमें इसका कारण दिखने लगा ,
किन्तु कुछ भी हो इस संपूर्ण घटनाक्रम से जो दर्द और व्यथा मुझे मिली उससे यह एहसास मुझे अवश्य हुआ कि उत्तराखंड कि इन पहाड़ियों में ऐसी ना जाने कितनी ही दर्द भरी कहानियां रोज़ लिखी जा रही होंगी ,और इनके पात्र पहाड़ में पहाड़ जैसा जीवन जीने को अभिशप्त होंगे ,क्या हमारे मौकापरस्त ,सत्तालोलुप राजनेता इन कहानियों में अंतर्निहित पथरीली सच्चाइयों और वेदना को कभी समझ पाएंगे ?यह सवाल मुझे निरंतर परेशान कर रहा है
नोट -यह पोस्टिंग गूगल सॉफ्टवेर की मदद से कर रहा हूँ ,पूर्ण विराम लगाना आता नहीं सो अल्पविराम से ही काम चला लिया
हुआ यूँ कि मेरी पत्नी जिसे लगभग एक महीने का गर्भ था ,पिछले कुछ दिनों से निरंतर कमर दर्द की शिकायत कर रही थी ,मैंने कारण पूछा तो पता चला कि पानी से भरा बर्तन उठाने के दौरान लगे झटके के बाद से कमर दर्द आरम्भ हुआ है ,आपको बताता चलूँ कि हमारा गाँव और यह संपूर्ण क्षेत्र जो कि उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जनपद में स्थित है ,आजकल पानी की भयंकर किल्लत से जूझ रहा है ,लोग कई कई किलोमीटर दूर से पानी लाने को मजबूर हैं ,यह जिम्मेदारी विशेषकर औरतों की होती है ,घर के सभी कामों व् पालतू जानवरों की देख रेख के साथ साथ यह अतिरिक्त जिम्मेदारी उन पर बहुत भारी पड़ती है ,विगत वर्ष तो कभी कभार टैंकरों के माध्यम से पानी की व्यवस्था की जाती रही किन्तु इस वर्ष ग्राम प्रधान धन की कमी का रोना रोते हुए पानी की व्यवस्था कर पाने में असमर्थता जता रहा है , ऐसा लगता है कि अगर यही स्थिति रही तो गाँवों के बाशिंदे यहाँ से पलायन करने को मजबूर हो जायेंगे ,अक्सर सुनता हूँ कि पानी की पाइप लाइन बिछाने के लिए लाखों रुपये की योजना स्वीकृत हुई है ,किन्तु नतीजा सिफ़र ही रहता है , यदि कुछ जगह पाइप बिछे भी हैं तो उचित देख रेख के अभाव में लोगों तक जलापूर्ति नहीं हो पाती ,प्यासे हलक लिए लोग कब तक यहाँ रह सकेंगे ,यह विचार मुझे अक्सर झकझोर देता है ,क्या राजधानी देहरादून में बैठे मंत्रियों,नेताओं और नौकरशाहों तक इन निरीह ग्रामीणों की यह प्यास कभी पहुँच पाएगी?
खैर , पत्नी का कमर दर्द जब निरंतर बना रहा और साथ ही हल्का हल्का खून आने की शिकायत हुई तो मुझे एक योग्य चिकित्सक की आवश्यकता महसूस हुई किन्तु दूर दूर तक कोई योग्य चिकित्सक उपलब्ध न होने से मेरी चिंता बढ गई ,और मैंने डाकटरी परामर्श हेतु देहरादून आने का निश्चय किया ,किन्तु सुबह ९ बजे के पश्चात देहरादून के लिए कोई गाडी उपलब्ध ना होने के कारण हमें पूरा दिन और पूरी रात बेचैनी में काटनी पड़ी , अगली सुबह मैंने गाडी की एक सीट बुक करने के लिए ड्राईवर को फ़ोन करना चाहा तो नेटवर्क में खराबी की वजह से फ़ोन भी नहीं मिल पाया , फिर हमने थक हारकर सड़क पर ही खड़े रहने का निर्णय लिया ,इस उम्मीद पर कि शायद कोई ना कोई गाडी हमें मिल ही जायेगी ,लम्बे इन्तजार के बाद एक गाडी (टाटा सुमो ) हमारे सामने आ खड़ी हुई ,मैंने पत्नी की हालत को देखते हुए ड्राईवर से एक सीट बुक करने का आग्रह किया ,पत्नी को सीट पर लिटाकर स्वयं अपने चार वर्षीय बालक को गोद में ले उसी सीट के कोने पर दुबक कर बैठ गया ,शुरूआती १० किलोमीटर के सफ़र के दौरान दो और सवारियां गाडी में बैठी जिनमें एक बीमार बुढिया थी जो शायद इलाज के लिए देहरादून जा रही थी और दूसरा एक हट्टा कट्ठा किन्तु बुरी तरह चोटिल नौजवान था जिसके बदन के लगभग हर हिस्से पर चोट के निशाँ थे जिनमें से हल्का हल्का खून भी रिस रहा था ,पूछने पर पता चला कि एक बड़े बांज के पेड़ से लकडियाँ काटते समय पैर फिसलने से उसकी यह हालत हुई ,यह सब देखकर मन एक अजीब पीड़ा से भर गया ,धीरे धीरे कुछ दूरी और तय करते करते गाडी सवारियों से ठसाठस भर गई ,जब गाडी के भीतर जगह कम पड़ने लगी तो कुछ लोग गाडी की छत पर और एक सज्जन तो ड्राईवर के साथ ही उसी की सीट पर बैठ गए, परिणामस्वरूप गाडी के संचालन हेतु पर्याप्त जगह ना होने के कारण ड्राईवर बमुश्किल किसी तरह गाडी आगे बढाने लगा ,एक तो तंग पहाड़ी सडकों के सर्पीले मोड़ ,गहरी गहरी खाइयाँ और ऊपर से ड्राईवर के इस अंदाज़ से गाडी चलाने की वजह से मुझे किसी अनहोनी के होने का डर सताने लगा , आँखों के आगे अखबारों की वो सुर्खियाँ चमकने लगी जिनमें अक्सर पहाड़ी सड़कों पर गाडी के गिरने और लोगों के हताहत होने का जिक्र होता है,बार बार मोड़ आने और गाडी के लहराते हुए चलने से पत्नी और पुत्र दोनों को मितली की शिकायत होने लगी ,दोनों इधर उधर की खिडकियों से उल्टी करने लगे ,उनको सँभालते सँभालते मेरी भी तबियत कुछ बिगड़ गई ,मुझे डर हुआ की कहीं मैं भी ना मुंह खोल दूं ,उधर पीछे की सीट में भी एक महिला उल्टी कर कर के बेहाल हो चुकी थी,
खैर लगभग ४ घंटे के सफ़र के पश्चात गाडी देहरादून पंहुची ,मैंने ड्राईवर को सधन्यवाद किराया दिया और यथाशीघ्र एक सुप्रसिद्ध महिला डॉक्टर से काफी मिन्नत कर के उन्हें मामले की गंभीरता को समझाकर मिलने का समय माँगा ,किन्तु तब तक शायद समय बीत चुका था ultrasound करने पर पता चला कि गर्भस्राव हो गया है ,एक सपने पर तुषारापात हुआ , मन दुःख और ग्लानि में डूब गया,मैं और मेरी पत्नी इस घटना के संभावित कारण ढूँढने लगे ,कभी लगा कि शायद पानी का बर्तन उठाने से ऐसा हुआ तो कभी सही वक़्त पर चिकित्सा सुविधा का ना मिल पाना और कभी पहाड़ी सफ़र के दौरान गाडी में लगे झटकों और उल्टियों में हमें इसका कारण दिखने लगा ,
किन्तु कुछ भी हो इस संपूर्ण घटनाक्रम से जो दर्द और व्यथा मुझे मिली उससे यह एहसास मुझे अवश्य हुआ कि उत्तराखंड कि इन पहाड़ियों में ऐसी ना जाने कितनी ही दर्द भरी कहानियां रोज़ लिखी जा रही होंगी ,और इनके पात्र पहाड़ में पहाड़ जैसा जीवन जीने को अभिशप्त होंगे ,क्या हमारे मौकापरस्त ,सत्तालोलुप राजनेता इन कहानियों में अंतर्निहित पथरीली सच्चाइयों और वेदना को कभी समझ पाएंगे ?यह सवाल मुझे निरंतर परेशान कर रहा है
नोट -यह पोस्टिंग गूगल सॉफ्टवेर की मदद से कर रहा हूँ ,पूर्ण विराम लगाना आता नहीं सो अल्पविराम से ही काम चला लिया
ये जिंदगी है पहाड़ की .........
आज कोई कविता या ग़ज़ल पोस्ट नहीं करूँगा , आज पेश है पहाड़ की समस्याओं भरी जिंदगी से रूबरू कराता एक वाकया ,जिसमें अगर पहाड़ का दर्द आपको दिखाई दे ,तो कृपया अपनी प्रतिक्रिया/टिप्पणी के माध्यम से मुझे अवश्य अवगत कराएँ , मैं मानूंगा कि मेरी यह कोशिश सार्थक हुई ,
हुआ यूँ कि मेरी पत्नी जिसे लगभग एक महीने का गर्भ था ,पिछले कुछ दिनों से निरंतर कमर दर्द की शिकायत कर रही थी ,मैंने कारण पूछा तो पता चला कि पानी से भरा बर्तन उठाने के दौरान लगे झटके के बाद से कमर दर्द आरम्भ हुआ है ,आपको बताता चलूँ कि हमारा गाँव और यह संपूर्ण क्षेत्र जो कि उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जनपद में स्थित है ,आजकल पानी की भयंकर किल्लत से जूझ रहा है ,लोग कई कई किलोमीटर दूर से पानी लाने को मजबूर हैं ,यह जिम्मेदारी विशेषकर औरतों की होती है ,घर के सभी कामों व् पालतू जानवरों की देख रेख के साथ साथ यह अतिरिक्त जिम्मेदारी उन पर बहुत भारी पड़ती है ,विगत वर्ष तो कभी कभार टैंकरों के माध्यम से पानी की व्यवस्था की जाती रही किन्तु इस वर्ष ग्राम प्रधान धन की कमी का रोना रोते हुए पानी की व्यवस्था कर पाने में असमर्थता जता रहा है , ऐसा लगता है कि अगर यही स्थिति रही तो गाँवों के बाशिंदे यहाँ से पलायन करने को मजबूर हो जायेंगे ,अक्सर सुनता हूँ कि पानी की पाइप लाइन बिछाने के लिए लाखों रुपये की योजना स्वीकृत हुई है ,किन्तु नतीजा सिफ़र ही रहता है , यदि कुछ जगह पाइप बिछे भी हैं तो उचित देख रेख के अभाव में लोगों तक जलापूर्ति नहीं हो पाती ,प्यासे हलक लिए लोग कब तक यहाँ रह सकेंगे ,यह विचार मुझे अक्सर झकझोर देता है ,क्या राजधानी देहरादून में बैठे मंत्रियों,नेताओं और नौकरशाहों तक इन निरीह ग्रामीणों की यह प्यास कभी पहुँच पाएगी?
खैर , पत्नी का कमर दर्द जब निरंतर बना रहा और साथ ही हल्का हल्का खून आने की शिकायत हुई तो मुझे एक योग्य चिकित्सक की आवश्यकता महसूस हुई किन्तु दूर दूर तक कोई योग्य चिकित्सक उपलब्ध न होने से मेरी चिंता बढ गई ,और मैंने डाकटरी परामर्श हेतु देहरादून आने का निश्चय किया ,किन्तु सुबह ९ बजे के पश्चात देहरादून के लिए कोई गाडी उपलब्ध ना होने के कारण हमें पूरा दिन और पूरी रात बेचैनी में काटनी पड़ी , अगली सुबह मैंने गाडी की एक सीट बुक करने के लिए ड्राईवर को फ़ोन करना चाहा तो नेटवर्क में खराबी की वजह से फ़ोन भी नहीं मिल पाया , फिर हमने थक हारकर सड़क पर ही खड़े रहने का निर्णय लिया ,इस उम्मीद पर कि शायद कोई ना कोई गाडी हमें मिल ही जायेगी ,लम्बे इन्तजार के बाद एक गाडी (टाटा सुमो ) हमारे सामने आ खड़ी हुई ,मैंने पत्नी की हालत को देखते हुए ड्राईवर से एक सीट बुक करने का आग्रह किया ,पत्नी को सीट पर लिटाकर स्वयं अपने चार वर्षीय बालक को गोद में ले उसी सीट के कोने पर दुबक कर बैठ गया ,शुरूआती १० किलोमीटर के सफ़र के दौरान दो और सवारियां गाडी में बैठी जिनमें एक बीमार बुढिया थी जो शायद इलाज के लिए देहरादून जा रही थी और दूसरा एक हट्टा कट्ठा किन्तु बुरी तरह चोटिल नौजवान था जिसके बदन के लगभग हर हिस्से पर चोट के निशाँ थे जिनमें से हल्का हल्का खून भी रिस रहा था ,पूछने पर पता चला कि एक बड़े बांज के पेड़ से लकडियाँ काटते समय पैर फिसलने से उसकी यह हालत हुई ,यह सब देखकर मन एक अजीब पीड़ा से भर गया ,धीरे धीरे कुछ दूरी और तय करते करते गाडी सवारियों से ठसाठस भर गई ,जब गाडी के भीतर जगह कम पड़ने लगी तो कुछ लोग गाडी की छत पर और एक सज्जन तो ड्राईवर के साथ ही उसी की सीट पर बैठ गए, परिणामस्वरूप गाडी के संचालन हेतु पर्याप्त जगह ना होने के कारण ड्राईवर बमुश्किल किसी तरह गाडी आगे बढाने लगा ,एक तो तंग पहाड़ी सडकों के सर्पीले मोड़ ,गहरी गहरी खाइयाँ और ऊपर से ड्राईवर के इस अंदाज़ से गाडी चलाने की वजह से मुझे किसी अनहोनी के होने का डर सताने लगा , आँखों के आगे अखबारों की वो सुर्खियाँ चमकने लगी जिनमें अक्सर पहाड़ी सड़कों पर गाडी के गिरने और लोगों के हताहत होने का जिक्र होता है,बार बार मोड़ आने और गाडी के लहराते हुए चलने से पत्नी और पुत्र दोनों को मितली की शिकायत होने लगी ,दोनों इधर उधर की खिडकियों से उल्टी करने लगे ,उनको सँभालते सँभालते मेरी भी तबियत कुछ बिगड़ गई ,मुझे डर हुआ की कहीं मैं भी ना मुंह खोल दूं ,उधर पीछे की सीट में भी एक महिला उल्टी कर कर के बेहाल हो चुकी थी,
खैर लगभग ४ घंटे के सफ़र के पश्चात गाडी देहरादून पंहुची ,मैंने ड्राईवर को सधन्यवाद किराया दिया और यथाशीघ्र एक सुप्रसिद्ध महिला डॉक्टर से काफी मिन्नत कर के उन्हें मामले की गंभीरता को समझाकर मिलने का समय माँगा ,किन्तु तब तक शायद समय बीत चुका था ultrasound करने पर पता चला कि गर्भस्राव हो गया है ,एक सपने पर तुषारापात हुआ , मन दुःख और ग्लानि में डूब गया,मैं और मेरी पत्नी इस घटना के संभावित कारण ढूँढने लगे ,कभी लगा कि शायद पानी का बर्तन उठाने से ऐसा हुआ तो कभी सही वक़्त पर चिकित्सा सुविधा का ना मिल पाना और कभी पहाड़ी सफ़र के दौरान गाडी में लगे झटकों और उल्टियों में हमें इसका कारण दिखने लगा ,
किन्तु कुछ भी हो इस संपूर्ण घटनाक्रम से जो दर्द और व्यथा मुझे मिली उससे यह एहसास मुझे अवश्य हुआ कि उत्तराखंड कि इन पहाड़ियों में ऐसी ना जाने कितनी ही दर्द भरी कहानियां रोज़ लिखी जा रही होंगी ,और इनके पात्र पहाड़ में पहाड़ जैसा जीवन जीने को अभिशप्त होंगे ,क्या हमारे मौकापरस्त ,सत्तालोलुप राजनेता इन कहानियों में अंतर्निहित पथरीली सच्चाइयों और वेदना को कभी समझ पाएंगे ?यह सवाल मुझे निरंतर परेशान कर रहा है
नोट -यह पोस्टिंग गूगल सॉफ्टवेर की मदद से कर रहा हूँ ,पूर्ण विराम लगाना आता नहीं सो अल्पविराम से ही काम चला लिया
हुआ यूँ कि मेरी पत्नी जिसे लगभग एक महीने का गर्भ था ,पिछले कुछ दिनों से निरंतर कमर दर्द की शिकायत कर रही थी ,मैंने कारण पूछा तो पता चला कि पानी से भरा बर्तन उठाने के दौरान लगे झटके के बाद से कमर दर्द आरम्भ हुआ है ,आपको बताता चलूँ कि हमारा गाँव और यह संपूर्ण क्षेत्र जो कि उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जनपद में स्थित है ,आजकल पानी की भयंकर किल्लत से जूझ रहा है ,लोग कई कई किलोमीटर दूर से पानी लाने को मजबूर हैं ,यह जिम्मेदारी विशेषकर औरतों की होती है ,घर के सभी कामों व् पालतू जानवरों की देख रेख के साथ साथ यह अतिरिक्त जिम्मेदारी उन पर बहुत भारी पड़ती है ,विगत वर्ष तो कभी कभार टैंकरों के माध्यम से पानी की व्यवस्था की जाती रही किन्तु इस वर्ष ग्राम प्रधान धन की कमी का रोना रोते हुए पानी की व्यवस्था कर पाने में असमर्थता जता रहा है , ऐसा लगता है कि अगर यही स्थिति रही तो गाँवों के बाशिंदे यहाँ से पलायन करने को मजबूर हो जायेंगे ,अक्सर सुनता हूँ कि पानी की पाइप लाइन बिछाने के लिए लाखों रुपये की योजना स्वीकृत हुई है ,किन्तु नतीजा सिफ़र ही रहता है , यदि कुछ जगह पाइप बिछे भी हैं तो उचित देख रेख के अभाव में लोगों तक जलापूर्ति नहीं हो पाती ,प्यासे हलक लिए लोग कब तक यहाँ रह सकेंगे ,यह विचार मुझे अक्सर झकझोर देता है ,क्या राजधानी देहरादून में बैठे मंत्रियों,नेताओं और नौकरशाहों तक इन निरीह ग्रामीणों की यह प्यास कभी पहुँच पाएगी?
खैर , पत्नी का कमर दर्द जब निरंतर बना रहा और साथ ही हल्का हल्का खून आने की शिकायत हुई तो मुझे एक योग्य चिकित्सक की आवश्यकता महसूस हुई किन्तु दूर दूर तक कोई योग्य चिकित्सक उपलब्ध न होने से मेरी चिंता बढ गई ,और मैंने डाकटरी परामर्श हेतु देहरादून आने का निश्चय किया ,किन्तु सुबह ९ बजे के पश्चात देहरादून के लिए कोई गाडी उपलब्ध ना होने के कारण हमें पूरा दिन और पूरी रात बेचैनी में काटनी पड़ी , अगली सुबह मैंने गाडी की एक सीट बुक करने के लिए ड्राईवर को फ़ोन करना चाहा तो नेटवर्क में खराबी की वजह से फ़ोन भी नहीं मिल पाया , फिर हमने थक हारकर सड़क पर ही खड़े रहने का निर्णय लिया ,इस उम्मीद पर कि शायद कोई ना कोई गाडी हमें मिल ही जायेगी ,लम्बे इन्तजार के बाद एक गाडी (टाटा सुमो ) हमारे सामने आ खड़ी हुई ,मैंने पत्नी की हालत को देखते हुए ड्राईवर से एक सीट बुक करने का आग्रह किया ,पत्नी को सीट पर लिटाकर स्वयं अपने चार वर्षीय बालक को गोद में ले उसी सीट के कोने पर दुबक कर बैठ गया ,शुरूआती १० किलोमीटर के सफ़र के दौरान दो और सवारियां गाडी में बैठी जिनमें एक बीमार बुढिया थी जो शायद इलाज के लिए देहरादून जा रही थी और दूसरा एक हट्टा कट्ठा किन्तु बुरी तरह चोटिल नौजवान था जिसके बदन के लगभग हर हिस्से पर चोट के निशाँ थे जिनमें से हल्का हल्का खून भी रिस रहा था ,पूछने पर पता चला कि एक बड़े बांज के पेड़ से लकडियाँ काटते समय पैर फिसलने से उसकी यह हालत हुई ,यह सब देखकर मन एक अजीब पीड़ा से भर गया ,धीरे धीरे कुछ दूरी और तय करते करते गाडी सवारियों से ठसाठस भर गई ,जब गाडी के भीतर जगह कम पड़ने लगी तो कुछ लोग गाडी की छत पर और एक सज्जन तो ड्राईवर के साथ ही उसी की सीट पर बैठ गए, परिणामस्वरूप गाडी के संचालन हेतु पर्याप्त जगह ना होने के कारण ड्राईवर बमुश्किल किसी तरह गाडी आगे बढाने लगा ,एक तो तंग पहाड़ी सडकों के सर्पीले मोड़ ,गहरी गहरी खाइयाँ और ऊपर से ड्राईवर के इस अंदाज़ से गाडी चलाने की वजह से मुझे किसी अनहोनी के होने का डर सताने लगा , आँखों के आगे अखबारों की वो सुर्खियाँ चमकने लगी जिनमें अक्सर पहाड़ी सड़कों पर गाडी के गिरने और लोगों के हताहत होने का जिक्र होता है,बार बार मोड़ आने और गाडी के लहराते हुए चलने से पत्नी और पुत्र दोनों को मितली की शिकायत होने लगी ,दोनों इधर उधर की खिडकियों से उल्टी करने लगे ,उनको सँभालते सँभालते मेरी भी तबियत कुछ बिगड़ गई ,मुझे डर हुआ की कहीं मैं भी ना मुंह खोल दूं ,उधर पीछे की सीट में भी एक महिला उल्टी कर कर के बेहाल हो चुकी थी,
खैर लगभग ४ घंटे के सफ़र के पश्चात गाडी देहरादून पंहुची ,मैंने ड्राईवर को सधन्यवाद किराया दिया और यथाशीघ्र एक सुप्रसिद्ध महिला डॉक्टर से काफी मिन्नत कर के उन्हें मामले की गंभीरता को समझाकर मिलने का समय माँगा ,किन्तु तब तक शायद समय बीत चुका था ultrasound करने पर पता चला कि गर्भस्राव हो गया है ,एक सपने पर तुषारापात हुआ , मन दुःख और ग्लानि में डूब गया,मैं और मेरी पत्नी इस घटना के संभावित कारण ढूँढने लगे ,कभी लगा कि शायद पानी का बर्तन उठाने से ऐसा हुआ तो कभी सही वक़्त पर चिकित्सा सुविधा का ना मिल पाना और कभी पहाड़ी सफ़र के दौरान गाडी में लगे झटकों और उल्टियों में हमें इसका कारण दिखने लगा ,
किन्तु कुछ भी हो इस संपूर्ण घटनाक्रम से जो दर्द और व्यथा मुझे मिली उससे यह एहसास मुझे अवश्य हुआ कि उत्तराखंड कि इन पहाड़ियों में ऐसी ना जाने कितनी ही दर्द भरी कहानियां रोज़ लिखी जा रही होंगी ,और इनके पात्र पहाड़ में पहाड़ जैसा जीवन जीने को अभिशप्त होंगे ,क्या हमारे मौकापरस्त ,सत्तालोलुप राजनेता इन कहानियों में अंतर्निहित पथरीली सच्चाइयों और वेदना को कभी समझ पाएंगे ?यह सवाल मुझे निरंतर परेशान कर रहा है
नोट -यह पोस्टिंग गूगल सॉफ्टवेर की मदद से कर रहा हूँ ,पूर्ण विराम लगाना आता नहीं सो अल्पविराम से ही काम चला लिया
शनिवार, 12 जून 2010
टूट गए जो सपने उन ........
टूट गए जो सपने उन सपनों की बातें ना करो
दिन ये अँधेरे ना करो ,क़त्ल ये रातें ना करो
आज नहीं तो कल होंगी खुशियों से रोशन आँखें
धुंध उदासी की गहरी, बोझिल ये आँखें ना करो
रंज सभी धुल जाते हैं प्रेम के पावन पावस से
प्रेम की धारा में डूबो नफरत की बातें ना करो
हासिल कुछ होगा नहीं ज़ख्म दिखा के जान लो
हंसी पे कोई गीत लिखो अश्कों की बातें ना करो
जीवन का श्रृंगार करो रंग भरो इस कागज़ पर
फूल भी हैं इस बगिया में काँटों की बातें ना करो
दिन ये अँधेरे ना करो ,क़त्ल ये रातें ना करो
आज नहीं तो कल होंगी खुशियों से रोशन आँखें
धुंध उदासी की गहरी, बोझिल ये आँखें ना करो
रंज सभी धुल जाते हैं प्रेम के पावन पावस से
प्रेम की धारा में डूबो नफरत की बातें ना करो
हासिल कुछ होगा नहीं ज़ख्म दिखा के जान लो
हंसी पे कोई गीत लिखो अश्कों की बातें ना करो
जीवन का श्रृंगार करो रंग भरो इस कागज़ पर
फूल भी हैं इस बगिया में काँटों की बातें ना करो
सोमवार, 7 जून 2010
मेरी ग़ज़ल का हर लफ्ज़ जो तेरा .....
मेरी ग़ज़ल का हर लफ्ज़ जो तेरा अक्श हो जाए
सारे जहां को मेरी कलम से रश्क हो जाए
ये नज़र फेर दो एक पल को मेरी जानिब अगर
तो कुछ दिन और जीने का बंदोबश्त हो जाए
साथ वक़्त का है जब तलक ये लम्हें जी लें
ये वक़्त जाने कब तेरे मेरे बरक्श हो जाए
वो पल आखिरी पल हो मेरे जीवन का "शाकिर"
जब मेरे भीतर के जुनून की शिकश्त हो जाए
सारे जहां को मेरी कलम से रश्क हो जाए
ये नज़र फेर दो एक पल को मेरी जानिब अगर
तो कुछ दिन और जीने का बंदोबश्त हो जाए
साथ वक़्त का है जब तलक ये लम्हें जी लें
ये वक़्त जाने कब तेरे मेरे बरक्श हो जाए
वो पल आखिरी पल हो मेरे जीवन का "शाकिर"
जब मेरे भीतर के जुनून की शिकश्त हो जाए
रविवार, 6 जून 2010
समझौता
इन
अंधेरों के
आलम में
मैं
दिल में
छुपे
रोशनी के
अरमानों
को
जला
पैदा
कर रहा हूँ
अपने लायक
उजाला
और
बढ़ रहा हूँ
धीरे धीरे
जीवन के
पथ पर
अंधेरों के
आलम में
मैं
दिल में
छुपे
रोशनी के
अरमानों
को
जला
पैदा
कर रहा हूँ
अपने लायक
उजाला
और
बढ़ रहा हूँ
धीरे धीरे
जीवन के
पथ पर
बुधवार, 2 जून 2010
दूरियां
मैं,
कुछ कुछ
तुम में हूँ
और
तुम
कुछ कुछ
मुझमें
हो ,
लेकिन
न जाने क्या
बात है कि ,
मैं तुम में
छुपे अपने आप को
नहीं देख पाता,
शायद ऐसा ही कुछ
होता होगा
तुम्हारे साथ भी
तभी तो
तुम्हारे और मेरे बीच
हैं दूरियां कायम
अभी तक
कुछ कुछ
तुम में हूँ
और
तुम
कुछ कुछ
मुझमें
हो ,
लेकिन
न जाने क्या
बात है कि ,
मैं तुम में
छुपे अपने आप को
नहीं देख पाता,
शायद ऐसा ही कुछ
होता होगा
तुम्हारे साथ भी
तभी तो
तुम्हारे और मेरे बीच
हैं दूरियां कायम
अभी तक
शनिवार, 22 मई 2010
ग़ज़ल
तेरे ख़यालों से इस तरह मेरा मन महक उठे
ज्यूँ बच्चे के खेलने से आँगन महक उठे
तुझे सोचकर लिखूं तो लगती है यूँ ग़ज़ल
ज्यूँ शादी का जोड़ा पहने दुल्हन महक उठे
यूँ तो बहार ही से कलियाँ खिलें मगर
कुछ कलियों के खिलने से सावन महक उठे
हाथों से मुसलमां के हिन्दू को जो लगे
उस रंग की खुशबू से वतन महक उठे
ज्यूँ बच्चे के खेलने से आँगन महक उठे
तुझे सोचकर लिखूं तो लगती है यूँ ग़ज़ल
ज्यूँ शादी का जोड़ा पहने दुल्हन महक उठे
यूँ तो बहार ही से कलियाँ खिलें मगर
कुछ कलियों के खिलने से सावन महक उठे
हाथों से मुसलमां के हिन्दू को जो लगे
उस रंग की खुशबू से वतन महक उठे
गुरुवार, 20 मई 2010
आम आदमी
मैं
एक आम आदमी
रोज सवेरे
सपनों भरी नींद
का मोह त्यागकर
उठता हूँ ,
आईने में,
कल तक
चेहरे पर उभर आई
खरोंचों को
देखकर अनदेखा
करता हुआ
एक नए संघर्ष के लिए
खुद को तैयार
करता हूँ
और
ना जाने कितने ही
कदमों द्वारा
रौंदी गई
सडकों पर
भीड़ का हिस्सा बन
निकल पड़ता हूँ ,
मैं
एक
आम आदमी
एक आम आदमी
रोज सवेरे
सपनों भरी नींद
का मोह त्यागकर
उठता हूँ ,
आईने में,
कल तक
चेहरे पर उभर आई
खरोंचों को
देखकर अनदेखा
करता हुआ
एक नए संघर्ष के लिए
खुद को तैयार
करता हूँ
और
ना जाने कितने ही
कदमों द्वारा
रौंदी गई
सडकों पर
भीड़ का हिस्सा बन
निकल पड़ता हूँ ,
मैं
एक
आम आदमी
रविवार, 16 मई 2010
सड़क पर ....
अक्सर
चलते हुए
सड़क पर
दिख जाती हैं मुझे
कई
लुटी हुई
जिंदगियां
वीरान आंखों
में कहीं
गहरे तक धंसी
निराशा ,हताशा
और
सूखी नसों में
खून
की जगह
दौड़ती मौत
दिख जाती है मुझे
अक्सर
चलते
हुए
सड़क पर
चलते हुए
सड़क पर
दिख जाती हैं मुझे
कई
लुटी हुई
जिंदगियां
वीरान आंखों
में कहीं
गहरे तक धंसी
निराशा ,हताशा
और
सूखी नसों में
खून
की जगह
दौड़ती मौत
दिख जाती है मुझे
अक्सर
चलते
हुए
सड़क पर
गुरुवार, 13 मई 2010
दो जून की रोटी
मासूम बचपन ने
बुना था जो एक
विशाल सपना
वो
जवानी तक आते आते
सिकुड़कर
इतना छोटा
हो गया कि अब
दायरे में उसके
आती हैं
सिर्फ
दो जून की रोटी
बुना था जो एक
विशाल सपना
वो
जवानी तक आते आते
सिकुड़कर
इतना छोटा
हो गया कि अब
दायरे में उसके
आती हैं
सिर्फ
दो जून की रोटी
बुधवार, 12 मई 2010
शब्दों के मुखौटे
मेरी मानो तो
रहो खबरदार
उन लोगों से
जो बाँध देते हैं तुमको
शब्दों की सुनहरी
बेड़ियों से
जो लहराते हुए
फेंकते हैं तुम पर,
शब्दों की मखमली चादर
और ढक देते हैं
तुम्हारी आँखों को
जो कभी सहलाते और कभी
गर्माते हैं तुम्हें
शब्दों से,
शब्दों का मुखौटा
पहने ये लोग
अपने शब्दों की हथेली
तुम्हारे पांवों के नीचे रख ,
उठाते हैं तुम्हें ऊंचा
और दिखाते हैं पल भर को
वो सतरंगी आसमान
जो कभी भी नहीं हो सकता
तुम्हारा !
मेरी मानो तो
रहो खबरदार
शब्दों की
बाजीगरी से
रहो खबरदार
उन लोगों से
जो बाँध देते हैं तुमको
शब्दों की सुनहरी
बेड़ियों से
जो लहराते हुए
फेंकते हैं तुम पर,
शब्दों की मखमली चादर
और ढक देते हैं
तुम्हारी आँखों को
जो कभी सहलाते और कभी
गर्माते हैं तुम्हें
शब्दों से,
शब्दों का मुखौटा
पहने ये लोग
अपने शब्दों की हथेली
तुम्हारे पांवों के नीचे रख ,
उठाते हैं तुम्हें ऊंचा
और दिखाते हैं पल भर को
वो सतरंगी आसमान
जो कभी भी नहीं हो सकता
तुम्हारा !
मेरी मानो तो
रहो खबरदार
शब्दों की
बाजीगरी से
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
बूँद
जिंदगी भर
एक वीरान मरुस्थल की
सूखी धरती को खोदकर
कोशिश करता रहा
पानी की एक
बूँद निकालने की
भूल गया कि
तपती दोपहरी के
इस उष्णकाल में
सिमट गई होगी
पानी की हर बूँद
अपने आप में
एक वीरान मरुस्थल की
सूखी धरती को खोदकर
कोशिश करता रहा
पानी की एक
बूँद निकालने की
भूल गया कि
तपती दोपहरी के
इस उष्णकाल में
सिमट गई होगी
पानी की हर बूँद
अपने आप में
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