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रविवार, 6 दिसंबर 2009

कूड़ा बीनती बच्ची

मैं कविता लिखूंगा
तुझ पर ओ बच्ची ,
कि तेरे मासूम हाथों में
खिलौनों कि जगह
कूड़े का थैला
आया आख़िर क्यों ?
कि शहर के घरों से निकली
इस गन्दगी के ढेर में
हाथों को फंसाए तू
ठीक उस वक्त पर
जब स्कूलों में
पहली घंटी बजती है,
क्या ढूंढ रही है ?
शायद वो रोटी
जो तेरे हिस्से में थी लेकिन
कई टुकड़ों में बंट कर
पक रही उन आलिशान घरों में
जिनमें कि तुझ जैसों का
अन्दर आना मना है
मैं कविता लिखूंगा
तुझ पर ओ बच्ची
मगर पूछ लूँ पहले
अपने उन खुदाओं से
जो लम्बी राह चलकर भी
अभी तुझ तक नहीं पहुंचे
कि तेरी मूक आंखों में जो
सवाल हैं गहरे
उनका जवाब पाने में
अभी कितना वक्त लगना है?
वादों के जंगल में अभी कितना
भटकना है ?
मैं कविता लिखूंगा
तुझ पर ओ बच्ची
मगर पहले आश्वश्त जरा हो लूँ
कि उसको पढने वालों में
होगी संवेदना बाकी
कि उनकी आँखें होंगी नम
कविता में जब तू रोएगी
मुझे डर है तेरे आंसू कहीं
बेकार ना जाएँ
कागज़ तक ही रहें दिलों में पहुँच ना पायें
मैं कविता लिखूंगा
तुझ पर ओ बच्ची
मगर पहले अपनी
उलझन ये सुलझा लूँ
कि तुझे देखकर
क्यों मैंने कलम ये उठाई?
पकड़ के तेरी कलाई
तुझे राह उजाले कि आख़िर
क्यों ना दिखाई?
शायद इसलिए
कि तेरी तरह ही मैं भी
फरेबों ,साजिशों के
अंधेरों में खड़ा हूँ
और रोशनाई में कलम की
रोशनी को
ढूंढ रहा हूँ

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

शून्य

तुम्हारे और मेरे
बीच के शून्य को
भर देना चाहता हूँ मैं
कुछ कोमल संवादों
और मधुर एहसासों से
चलो ऐसा करें कि
शब्दों के सेतु बाँध दें
इस पार से उस पार तक
जिनसे गुजरकर पहुँच सकें
कुछ मीठे पल
मुझ से तुम तक
और
तुम से मुझ तक